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एक उपेक्षित राष्ट्रमहानायक,श्रावस्ती सम्राट भर क्षत्रिय सुहेलदेव राय

आधुनिक भारतीय इतिहासकारों को भारतीय इतिहास के इस कटु सत्य को स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि प्राचीन भारतीय इतिहासकारों (जिनमें पुराणकार प्रमुख हैं-यद्यपि पुराण इतिहास नहीं हैं) ने वर्ण व्यवस्था से प्रभावित होकर इतिहास लेखन किया। प्राचीन भारतीय समाज का विभाजन धर्म के आधार पर मूलतः दो भागों में किया गया ,पहला वैष्णव एवं दूसरा शैव। वैष्णव वर्ग सामन्तशाही का पोषक रहा और शैव समता मूलकसमाज का पक्षधर रहा। विष्णु ने अपने अनुयायियों में वर्ण व्यवस्था को खास तरजीह दी और शिव ने पिछड़े, आदिवासी, अछूत लोगों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने में यकीन किया। अधिकांश पुराणकार वैष्णव पंथी होने के कारण वैष्णव में से नायकों का चुनाव किया और शैवों को प्रतिद्वन्दी यहां तक कि दैत्य, दानव, राक्षस आदि माना। भारतीय इतिहास की इसी बिडम्बना ने ऐसे महानायकों जो अवैष्णव थे को इतिहास में या तो सम्मिलित नहीं किया या फिर उनको उतना महत्व नहीं दिया जितना कि दिया जाना चाहिए था। हर क्षेत्र में ऐसा किया गया, फलतः भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पन्ने दबे रह गए। आज हम अनेको महापुरुषों तथा राष्ट्र की गौरव पूर्ण घटनाओं से अनभिज्ञ हैं। इन सबके लिए कौन उत्तरदायी है ? कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। दुनिया के ज्ञान-पिपासु हों अथवा दुर्दान्त डाकू-लुटेरे, सभी के लिए भारत भूमि आकर्षण का केन्द्र रही है ,इसका मुख्य कारण भारत का सम्पूर्ण विश्व की प्रतिकृति होना है। विश्व के हर देश की कोई न कोई विशेषता भारत में विद्यमान रही है। ईश्वर ने भारत को हर सौगात दी है। कोई राष्ट्र अति वर्षा से पीड़ित है तो कोई अति मरुस्थल से, कोई अति शीत से कोई अति ताप से। किसी भी क्षेत्र की बात करिए विश्व का कोई भी देश पूर्ण नहीं है। ईश्वर ने भारत को ही पूर्णता प्रदान की है। एक वाक्य में हम यह कह सकते हैं कि जो भारत में नहीं है वह कहीं नहीं है। भारत की समन्वय की, पूर्णता की ,यही विशेषता उसके जी का जंजाल भी बनी। विदेशी लुटेरों ने भारत की आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक निधि को लूटने का प्रयास किया और यहां की सभ्यता को पद दलित करने का क्रूर प्रयास किया। मुख्य रूप से इस्लाम धर्मावलम्बी लुटेरों ने अपना उद्देश्य धन लूटना और जेहाद बनाया। जब जिसके मन में आया भारत पर टूट पड़ा। विदेशी लुटेरे, साधारण क्रूर-कबीलों ने भी इसका लाभ उठाया। भारत के शक्ति पुत्रों ने समय समय पर राष्ट्र की अस्मिता बचाने का प्रयास किया । कई इसमें सफल हुए और कई देशी गद्दारों की गद्दारी के कारण असफल भी हुए। सबसे दुखद बात तो यह है कि हमारे ही यहां के कुछ प्रतिष्ठित कहे जाने वाले या समझे जाने वाले कुलीन राजवंशों ने यहां के अकुलीन समझे जाने वाले राजवंशों को मटियामेट करने के लिए विदेशी लुटेरों को शह दी और लाभ उठाया। यह सब कुछ होने के बाद भी भारत की अपनी असाधारण धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान अक्षुण्य बनी रही। ग्यारहवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में भारत में एक अभूतपूर्व घटना घटी ,जिसके महानायक श्रावस्ती सम्राट भर क्षत्रिय वीर सुहेलदेव थे एवं खलनायक था गजनी से आया क्रूर, पाखण्डी, पामार, हैवानियत की प्रतिक्रृति, दुर्दान्त लुटेरा सैयद सालार मसूद गाजी। यहां भी सुहेलदेव भर क्षत्रिय को अकुलीन ही माना गया और उनको पराजित कराने के हथकण्डे कथित कुलीनों द्वारा किया गया। किन्तु राष्ट्रवादियों पर लिखा गया कोई इतिहास तब तक पूर्ण नहीं कहलायेगा जब तक कि उसमे राष्ट्रवीर श्रावस्ती सम्राट सुहेल देव भर क्षत्रिय की वीर गाथा शामिल नहीं होगी। भर क्षत्रिय सुहेल देव एवं गाजी मियां के बीच हुआ युद्ध एक असाधारण घटना है। श्रावस्ती सम्राट राष्ट्रवीर सुहेलदेव का जन्म वसन्त पन्चमी सन् 1009 ईस्वी को हुआ था। इनके पिता का नाम बिहारीमल था जो कि जो कि भारशिव या भर क्षत्रिय कुलोत्पन्न थे। इनकी माता का नाम जयलक्ष्मी था जो कि चन्देलवंश की थीं। (यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि भर क्षत्रिय वंश में चन्देल वंश की राजकुमारी विवाह गई अब आप स्वयं भर या भारशिव क्षत्रिय वंश की प्रतिष्ठा का अनुमान लगायें।) सुहेलदेव के तीन भाई और एक बहन थी जिनका नाम रुद्रमल ,बागमल ,सहारमल (भूरायदेव) एवं अम्बे था। सुहेलदेव की शिक्षा-दीक्षा सुयोग्य गुरुजनों के सानिध्य में सम्पन्न हुई। अपने पिता बिहारीमल एवं राज्य के योग्य युद्धकौशल विज्ञों की देखरेख में सुहेलदेव ने युद्ध कौशल ,घुड़सवारी आदि की शिक्षा ग्रहण की। सुहेलदेव की बहुमुखी प्रतिभा एवं लोकप्रियता को देखकर मात्र अठारह वर्ष की आयु में-सन् 1027 ईस्वी को राजतिलक कर दिया गया और राजकाज में सहयोग के लिए योग्य अमात्य तथा राज्य की सुरक्षा के लिए योग्य सेनापति नियुक्त कर दिये गये। अनुश्रुति के अनुसार सन् 1020 ईस्वी में श्रावस्ती में सैयद सालार मसूद गाजी ने आक्रमण कर राजा बिहारीमल को मार डाला था, यह कथन सत्य प्रतीत नहीं होता, क्योंकि सन् 1034 ईस्वी में सैयद सालार मसूद गाजी की आयु मात्र उन्नीस वर्ष थी अतएव 1020 ईस्वी में उसकी आयु (लगभग) मात्र छः वर्ष रही होगी। यदि इसे सच मान भी लिया जाये (यद्यपि इसे किसी हालत में सच नहीं माना जा सकता।) तो सुहेलदेव का राज्याभिषेक सन् 1027 ईस्वी में न होता। इन सात वर्षों में सैयद सालार मसूद की पकड़ मजबूत हो गई होती। सैयद सालार मसूद गाजी द्वारा विजित राज्य पर किसी भारतीय धर्मावलम्बी का राजा बनाया जाना असंभव था। यदि यह माना जाये कि सन् 1020 ईस्वी में सैयद सालार मसूद गाजी के पिता सैयद शाह सालार या उसके मामा सुल्तान महमूद गजनवी ने राजा बिहारीमल को मारा था तब भी निश्चित रूप से वहां पर सैयद गाजी का शासन होता ,एवं इस्लामी इतिहासकारों द्वारा उक्त बातों का अवश्य उल्लेख किया गया होता किन्तु इस्लामी इतिहासकारों द्वारा ऐसा कुछ कहीं नहीं लिखा गया। सुहेलदेव भर में राष्ट्रभक्ति का जज्बा कूट-कूट कर भरा था ,इसीलिए राष्ट्र में प्रचलित भारतीय धर्म, समाज, सभ्यता एवं संस्कृति की रक्षा को अपना मुख्य कर्तव्य माना। राष्ट्र की अस्मिता से सुहेलदेव ने कभी समझौता नहीं किया। प्रत्येक भारतीय राजा की संप्रभुता का सम्मान करते हुए अपने राज्य विस्तार के लिए किसी भारतीय राजा के राज्य पर आक्रमण नहीं किया। उनके द्वारा विदेशी दुर्दान्त लुटेरे एवं कट्टर इस्लाम प्रचारक-प्रसारक सैयद सालार मसूद गाजी का बध किया जाना एक सच्चे राष्ट्रवादी-भारत प्रेमी होने का अनुपम उदाहरण है। यहां हमें यह भलीभांति समझ लेना चाहिए कि सैयद सालार मसूद गाजी ने भारत देश को लूटने और इस्लाम का प्रचार करने के लिए सभी प्रकार की मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रख दिया था और हैवानियत की पराकाष्ठा को भी लांघ दिया था। सिन्ध, मुल्तान, कन्नौज, दिल्ली (ढिल्लिका), मेरठ आदि स्थानों में ऐसी तबाही मचाई कि इन्सानियत कांप उठी। सुहेलदेव की राज्य सीमा में भी उसने ऐसा करना चाहा। उसने रामजन्म भूमि को ढहाया और भरराइच में अपने भाई से मिलने आई बहन अम्बे का अपहरण कर लिया। सैयद सालार मसूद की यह सबसे बड़ी भूल थी। रामजन्म भूमि का ढहाया जाना भारतीयों की धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात था और अम्बे का अपहरण भारतीय अस्मिता का तार-तार किया जाना था। भला कौन राष्ट्रपे्रमी यह सहन करता। सुहेलदेव को भारतीय नरेशों द्वारा की गई भूलों का अहसास था। उन्होने छोटे बड़े इक्कीस राजाओं (राय रायेत, राय सायेत, अर्जुन, भीखन, कनक, कल्याण, नगरून, मगरू, कर्णदेव, बीरबल, अजयपाल, श्रीपाल, हरपाल, हरखू, नरखू, देव नारायण, वीरसिंह, राय भरदेव, बहरमल, मल्हराय, सेमावत) को पत्र लिखा कि यदि हम सब एकजुट होकर गाजी का सामना नहीं करेंगे तो परिणाम अच्छे नहीं होंगे। नरेशों ने उनके पत्र की गंभीरता को समझा और अपनी अपनी सेना सहित सुहेलदेव का साथ दिया। कुरूक्षेत्र में हुए महाभारत के बाद यह दूसरा युद्ध था जब इस प्रकार नरेश और उनकी सेनाएं एकत्र हुईं। सभी राजाओं ने सुहेलदेव को समेकित सेना का सेनापति स्वीकार किया। गाजी भी अपनी सेना के साथ युद्ध क्षेत्र में उतरा। वह सुहेलदेव द्वारा घेर लिया गया। ईरान से उसके पिता सैयद शाह सालार मसूद एवं गुरु सैयद मीर इब्राहिम उसे बचाने के लिए भारत दौड़े आये किन्तु वे गाजी को नहीं बचा पाये। सैयद सालार मसूद गाजी अपने कु-कर्मों के कारण श्रावस्ती सम्राट सुहेलदेव भर के हाथों मारा गया। भारतीय इतिहास में भरराइच के महासमर को दूसरा कुरुक्षेत्र की संज्ञा दी जाती है-इससे भर-राइच महासमर में हुई विनाष लीला का अन्दाजा लगाया जा सकता है। सुहेलदेव भर की इस विजय को धर्म की विजय कहा जा सकता है। मिर-अत-ई-मसूदी के लेखक मुस्लिम इतिहासकार शेख अब्दुर्रहमान चिश्ती ने लिखा है कि-इस युद्ध में दो खादिमों (सेवकों) को छोड़ सभी मारे गये। गजनी-ईरान के हर घर का कोई न कोई अवश्य मरा था। भारतीय इतिहास के दूसरे कुरुक्षेत्र को इतिहासकारों ने मात्र एक दो पंक्तियों में उल्लेख कर अपने कर्तव्य की इति श्री की, ऐसा क्यों ? इसका मूल कारण इस महासमर का अति राष्ट्रवादी एवं कट्टर इस्लामवाद के विरुद्ध लड़ा जाने वाला युद्ध होना है। जिस तरह से भारतीय धर्मों की रक्षा करने एवं कट्टर इस्लामवादिता का प्रसार रोकने के लिए सुहेलदेव भर ने युद्ध किया उसका वर्णन करने से शायद इतिहासकार कट्टर इस्लामियों के कोपभाजन हो सकते थे। इस्लामिक आतंकवाद जैसा आज हम देख रहे हैं उस जमाने में इसका रूप और भी विकृत रूप था। इतिहासकारों एवं तत्कालीन राजवंशों ने सुहेलदेव एवं भर कौम को भुला देने में ही अपनी भलाई समझी। इतिहास साक्षी है कि सैकड़ों साल बाद भी मुस्लिम शासकों ने महाराजा सुहेलदेव के वंशजों (उत्तराधिकारियों) एवं भर जाति को ढूंढ़ ढूंढ़ कर कत्ल करवाया। इसके लिए यहां के स्वार्थी गद्दार राज वंशों ने भी मुस्लिम शासकों का साथ दिया और इनाम पाये। उस समय के कवियों को इस राष्ट्र महानायक को लेकर जिस राष्ट्रवादी साहित्य का सृजन करना था वह नहीं किया गया। जिस राष्ट्रवादी युद्ध के भय ने लगभग दो सौ वर्षों तक विदेशी आक्रमणकारियों-लुटेरों को भारत की ओर नजर उठाकर देखने का साहस नहीं होने दिया यदि उस राष्ट्रवादी युद्ध की गाथा को कवियों ने जनमानस तक पहुंचाया होता तो यहां के हर घर के बच्चे के खून में इतना उबाल आ चुका होता कि इतिहास में गुलाम वंश, मुगल वंश, आदि का उल्लेख करने का अवसर ही न मिलता और भारत मजहबी मार काट का अखाड़ा न बन पाता। आज के वैज्ञानिक युग में जबकि मनुष्य चन्द्रमा पर जा पहुँचा है, इसलामिक कट्टरवाद इस्लाम के प्रचार के लिए प्रेम के बल पर नहीं अपितु खून-खराबे एवं आतंक के सहारे इस्लाम के प्रचार प्रसार में विश्वास रखता है। यद्यपि यह बात हर इस्लामिक व्यक्ति पर लागू नहीं होती किन्तु कुछ सिरफिरे जो इस्लाम को समझते ही नहीं हैं निरीह प्राणियों का कत्लेआम करते हैं। जब हम मनुष्यों को ही जीने नहीं देते तब हम कहाँ के धार्मिक हैं ? उस अदृश्य के नाम पर दृश्य जगत के दृश्य प्राणियों का खून बहाना महान मूर्खता ही कही जायेगी। धर्म क्या है यहाँ चर्चा करना उचित नहीं है। मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि जब किसी धर्म विशेष का व्यक्ति यह कहता है कि ईश्वर ने ऐसा कहा है तब आप यह समझ लीजिए कि वह उतना ही झूठ बोल रहा है- क्योंकि ईश्वर ने कभी भी किसी को भी वर्ग विशेष के पोषण के लिए न तो कुछ कहा और न लिखा, जो कुछ भी कहा या लिखा गया है-हमारे ही बीच के व्यक्तियों ने कहा या लिखा है। जो लोग किसी भी बात को जबरन ईश्वर पर थोपते हैं वह ईश्वर की सत्ता को सीमित ही करते हैं। ईश्वर की किसी भी कृति में आलोचना की गुंजाइश नहीं होती जबकि हमारे धर्म ग्रन्थ, सिद्धान्त आदि आलोचना से परे नहीं हैं। हम अपने अपने समुदायों के ग्रन्थों, सिद्धान्तों को ईश्वरीय सिद्ध करने के लिए रात दिन एक कर रहे हैं एवं दूसरों को बाध्य करने में लगे हैं कि उनके समुदाय के पास जो है वही सत्य है-पर ऐसा है नहीं। धर्म के विषय में आज भी यह कहानी प्रासंगिक है- ‘‘पाँच अन्धे थे। उनके सामने हाथी खड़ा था। उनने जानना चाहा कि हाथी कैसा होता है। वे हाथी को टटोलने लगे। पहले अन्धे ने हाथी का पैर टटोला और कहा कि हाथी खम्भे के समान होता है। दूसरे अन्धे ने कान स्पर्श किया और कहा कि हाथी सूप के समान होता है। तीसरे अन्धे ने हाथी की पूछ को टटोला और कहा कि हाथी पतली रस्सी के समान होता है। चैथे अन्धे ने हाथी की सूड़ को टटोलते हुए कहा कि हाथी का आकार लम्बे अजगर के समान होता है। और, पाँचवें अन्धे ने हाथी के दाँत का स्पर्श किया और कहा कि हाथी का आकार डण्डे के समान होता है। धर्म के मामले में हम लोगों की स्थिति इन पाँचों अन्धों के समान ही है। हाथी रूपी धर्म को समझने के लिए यह आवश्यक है कि जिस अन्धे ने जो कुछ जाना उसका समन्वय करे और उसे एक रूप दे। खेद की बात है कि जो धारण करने योग्य है उसे हम धारण नहीं करते और धारण न करने योग्य को धारण करते हैं।’’

-- : आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’

सिहोरा, जबलपुर म.प्र. 483225 मो.9424767707


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तथागत बुद्ध ,सन्त एकनाथ और एक मुस्लिम पीर (प्रसंगवश)

बौद्ध होना और बौद्ध होने का ढोंग करना दोनों में जमीन आसमान का अन्तर है। सच तो यह है कि जब कोई बौद्ध सामाजिक समरसता की आड़ में राजसत्ता पाने को अपना ध्येय बना लेता है तब उसे अपने आराध्य के बहुत से बहुमूल्य सिद्धान्तों की बलि देनी पड़ती है। यह बात केवल बौद्ध मतावलम्बियों पर ही नहीं अपितु सभी धर्म मतावलम्बियों पर लागू होती है। अभी हाल ही में राजनेताओं द्वारा एक दूसरे से की गई गाली गलौज से इन महान आत्माओं को अवश्य पीड़ा पहुँची होगी। जब हम भगवान बुद्ध से सम्बंधित साहित्य का अध्ययन करते हैं तब बहुत से ऐसे प्रसंग हैं जो हमारे हृदय को छू जाते हैं और हम भगवान बुद्ध के प्रति श्रद्धा विभोर होकर उनके चरणों में नत मस्तक हो जाते हैं। यहाँ भगवान बुद्ध के एक ऐसे ही प्रसंग का उल्लेख कर रहा हूँ। भगवान बुद्ध अपनी शिष्य मण्डली के बीच विराजमान थे। उसी समय वहाँ एक ब्राह्मण आया। वह ब्राह्मण तथागत भगवान बुद्ध का घोर विरोधी था। (वैसे भी सभी जानते हैं कि बौद्धों और ब्राह्मणों अथवा ब्राह्मणवाद में बहुत कटुता रही है जो कि जग जाहिर है।)। वह ब्राह्मण वहां आते ही भगवान बुद्ध को अत्यंत अभद्र गालियां बकने लगा। भगवान बुद्ध अभद्र गालियां सुनते रहे और मुस्कराते रहे। गालियां देते देते जब वह ब्राह्मण थक गया और चुप हो गया तब भगवान बुद्ध ने अपने एक शिष्य से कहा कि ब्राह्मण देवता गालियां देते देते थक गये होंगे, इन्हें भूख भी लगी होगी अतएव इनकी थकान एवं भूख मिटाने के लिए सुमधुर पकवान लाये जाये। शिष्य गया और सुमधुर पकवानों से भरी थाली भगवान बुद्ध को दी। भगवान बुद्ध ने वह थाली ब्राह्मण के सामने रख दी और कहा ब्राह्मणदेव भोजन ग्रहण कर अपनी थकान और भूख मिटाइये। ब्राह्मण हक्का बक्का रह गया। इसी बीच भगवान बुद्ध ने ब्राह्मण से पूछा- हे ब्राह्मण देवता थाली में जो भोजन रखा हुआ है यदि आप उसे ग्रहण नहीं करते तो वह थाली और भोजन किसका होगा ? ब्राह्मण ने कहा- स्वाभाविक है यदि मैं इस थाली में रखा हुआ भोजन ग्रहण नहीं करता हूं तो इस थाली में रखा हुआ भोजन, भोजन देने वाले का अर्थात आपका ही होगा। भगवान बुद्ध मुस्कराये और बोले- हे ब्राह्मण देवता, अभी आपने मुझे जितनी गालियां दी (बकी)ं, उन गालियों को मैं स्वीकार नहीं करता तो वे गालियां किसकी होंगी ? स्वाभाविक रूप से गालियां देने वालें की अर्थात आपकी ही होंगी। गौतम बुद्ध की यह वाणी सुनकर ब्राह्मण देवता पानी पानी हो गये और भगवान बुद्ध के चरणों में लोट गये। वैष्णववादियों ने भी अपने महापुरुषों के उदात्त चरित्र को भुला दिया है, सहनशीलता की बलि चढ़ा दी है। हमें सन्त एकनाथ जी से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। सन्त एकनाथ बहुत सहनशील थे। कोई कितना भी गुस्सा दिलाने की कोशिश करे ,उन्हें क्रोध नहीं आता था। उनका सहनशीलता का स्वभाव जग जाहिर था। किसी ने शर्त रखी कि जो सन्त एकनाथ जी को क्रोधित कर देगा उसे सौ स्वर्ण मुद्रायें पुरस्कार में दी जायेंगी। एक ब्राह्मण बोले ,ये तो मेरे बायें हाथ का खेल है। मैं सन्त एकनाथ जी को क्रोधित कर दूंगा आप मुझे पुरस्कार में देने के लिए सौ स्वर्ण मुद्रायें तैयार रखिये। यह कहकर वह ब्राह्मण सन्त एकनाथ जी के घर गया। अपने स्वभाव के अनुरूप सन्त एकनाथ जी ने अतिथि सत्कार किया और अपनी पत्नि से कहा कि अतिथि को भूख लगी होगी अतएव इन्हें भोजन कराओ। सन्त एकनाथ और वह ब्राह्मण भोजन करने के लिए बैठे। जब सन्त एकनाथ जी की पत्नि भोजन परोसने के लिए उस ब्राह्मण के सामने झुकीं तब वह ब्राह्मण अति शीघ्र उठ खड़ा हुआ और लपककर उनकी (माता जी की) पीठ (कमर) पर बैठकर चल मेरे घोड़े टिक टिक टिक करने लगा। सन्त एकनाथ जी की पत्नि क्या करतीं वे वैसे ही झुकी रह गईं। सन्त एकनाथ मुस्कराये और अपनी धर्म पत्नि से बोले- ‘‘हरिया की माँ (सन्त एकनाथ जी के पुत्र का नाम हरी था), यह हरिया का छोटा भाई है, बड़ा नटखट है। ध्यान रखना पीठ से गिर न जाये ,चोट लग जायेगी। और उस ब्राह्मण से बोले बेटा संभलकर बैठना ,माँ की पीठ से गिर मत जाना।’’ ब्राह्मण को काटो तो खून नहीं। ब्राह्मण पानी पानी हो गया। वह माता जी की पीठ से उतरा और सन्त एकनाथ जी के चरणों में साष्टांग गिर गया, क्षमा याचना की। एक प्रसंग एक मुस्लिम पीर का है। एक व्यक्ति घबराया हुआ उनके यहां शरण लेने पहुंचा। पीर ने उस व्यक्ति से उसकी घबराहट का कारण पूछा। उसने बताया कि उसके हाथ से एक व्यक्ति का कत्ल हो गया है। उसे मारने के लिए उसके पीछे भीड़ पड़ी है। भीड़ की नजर बचाकर वह किसी तरह इस घर में घुस पाया है। पीर ने कहा ठीक है तुम यहां रह सकते हो इस घर में कोई नहीं घुसेगा, ऐसा कहकर पीर ने अन्दर से दरवाजा बन्द कर लिया। पीर ने कहा तुम भूखे होगे , वहां भोजन रखा है खा लो। वह कातिल भोजन करने लगा। उसी समय भीड़ दरवाजे के बाहर पहुंच गई और आवाज देने लगी, पीर साहब एक व्यक्ति ने आपके पुत्र का कत्ल कर दिया है। कातिल इसी तरफ आया है ,क्या आपने उसे देखा है। अपने पुत्र के कत्ल की बात सुनकर पीर सन्न रह गये। अब क्या करें। उनके पुत्र का कातिल उनके घर में उनके सामने बैठा भोजन कर रहा था। अल्लाह की मर्जी, शरण दी है तो बचन निभाना पड़ेगा। उन्होंने कांपते स्वर में कातिल से कहा , चूंकि तुम्हारे हाथों मेरे फरजन्द का कत्ल हुआ है ऐसी स्थिति में मैं भी तुम्हें नहीं बचा पाऊंगा। यह भीड़ मेरी कोई बात नहीं सुनेगी। तुम यह भोजन अपने साथ ले जाओ रास्ते में कहीं खा लेना। पीछे के दरवाजे से फौरन भाग जाओ। पीर ने पीछे के दरवाजे से अपने पुत्र के कातिल को भगा दिया और उसके बाद दरवाजा खोलते हुए भीड़ से कहा, नहीं भाई यहां कोई कातिल नहीं है , चाहो तो देख लो। भीड़ चुपचाप लौट गई कातिल की खोज में। ये सब प्रसंग उच्च मानव होने के उदाहरण हैं। इन सब प्रसंगों को हम भुला चुके हैं। जरा जरा सी बात पर आवेश में आकर अभद्रता कर बैठते हैं। हम पढ़े लिखे तो हो गये हैं किन्तु शिक्षित नहीं हुए। हमारी शिक्षा संस्कार विहीन, नैतिकता विहीन हो गई है। खासकर राजनेताओं से तो नैतिकता और संस्कारों की अपेक्षा करना बेमानी है। अमर्यादित, असंस्कारी, अनैतिकता से भरे राजनेताओं का बढ़ता झुण्ड हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृति को कलंकित करने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ रहा।

-- : आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’

सिहोरा, जबलपुर म.प्र. 483225 मो.9424767707


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कविता ( हाइकु )

सुहेल देव
देश, धर्म 'औ' आन ,
परिचायक ।

                            जय सुहेल,
                            है हिन्दू विजय का
                            अमिट गान ।

बल्लरी देवी,
आदर्श शिष्या, पत्नी ,
अंगरक्षक ।

                        बारा 'औ' डल
                        त्यागी प्रजा हित के
                        भर गौरव ।

बेचन राम,
लोकगीत गायक
कला प्रेरक ।

                        राजभर है
                        जप, तप, त्याग का
                        निडर योध्दा ।

राह दिखाता
राजभर मार्तण्ड
यथार्थ भाव ।

                        साहित्य रत्न ,
                        आचार्य "राजगुरु "
                        शिवप्रसाद

राजभरेन्दु
भर - शिविका, पूज्य ,
शिवप्रसाद ।

                                -- : संजय  राजभर  'समित '
                                                        9322462546
                                                                मुम्बई